एक सवाल जो हर छत्तीसगढ़वासी को खुद से पूछना चाहिए – शादी के बाद बहू की ज़िंदगी कैसी होती है?
“शादी के बाद बहू की ज़िंदगी किस तरह बदल जाती है, ये बात हम सब जानते हैं लेकिन बोलता कोई नहीं।”
“बिटिया को अच्छे घर में शादी करनी है, जहां उसे मान-सम्मान मिले।” हम सभी ये कहते हैं, लेकिन जब बेटी की डोली ससुराल जाती है, तो क्या वाकई उसे वो मान-सम्मान मिलता है जिसका वादा किया गया था?
छत्तीसगढ़ जैसे सांस्कृतिक और पारंपरिक राज्य में, जहाँ परिवार और संस्कार को सबसे ऊपर रखा जाता है — वहाँ एक ऐसी कड़वी सच्चाई भी है, जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। वो सच्चाई है: शादी के बाद एक बहू से उम्मीद की जाती है कि वो बिना थके, बिना रुके, बिना कुछ कहे – घर की पूरी ज़िम्मेदारी निभाए।
खाना बनाना, बर्तन धोना, कपड़े धोना, घर साफ़ करना, सास-ससुर की सेवा, बच्चों की देखभाल – ये सब मानो बहू की ड्यूटी ही बन जाती है।
लेकिन क्या ये शादी है? या एक अनकही गुलामी?
शादी के बाद बहू की ज़िंदगी अचानक बदल जाती है। जिस घर में वो आई है, वहाँ सब कुछ नया होता है — रिश्ते, ज़िम्मेदारियाँ, उम्मीदें। लेकिन क्या कभी किसी ने ये सोचा है कि वो अपने मन की कितनी बातें दबा देती है, सिर्फ इस डर से कि कहीं उसे ‘अच्छी बहू’ न माना जाए?
हर बेटी कोई ‘मददगार’ नहीं, वो भी एक इंसान है
कल्पना कीजिए – एक लड़की जो पढ़ी-लिखी है, सपनों से भरी है, शादी करके नए घर जाती है। लेकिन जैसे ही पैर उस घर में पड़ते हैं, उससे उम्मीद की जाती है कि:
- सुबह सबसे पहले उठे
- पूरे परिवार के लिए चाय बनाए
- फिर नाश्ता, खाना, सफ़ाई
- ऑफिस जाए (अगर कामकाजी है)
- वापस आकर फिर वही काम दोहराए
जब वो थक कर चुपचाप एक कोना पकड़ती है, तो उसे कहा जाता है – “ये सब तो करना ही पड़ता है बहू को। हमने भी किया है।”
हम सबने देखा है कि शादी के बाद बहू की ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा किचन, झाड़ू-पोंछा और दूसरों की सेवा में ही बीतता है। लेकिन क्या कभी किसी ने उससे पूछा कि क्या वो थक गई है? क्या वो भी कभी अपने लिए जीना चाहती है? क्या हमने कभी पूछा है कि वो करना चाहती है या नहीं?
छत्तीसगढ़ की बहुएँ – एक अनकही कहानी
शादी के बाद बहू की ज़िंदगी में एक अनकहा बोझ होता है — ‘घर को संभालना’। लेकिन इस जिम्मेदारी को निभाते-निभाते वो अपने सपनों, अपने करियर, अपनी आज़ादी तक को कहीं पीछे छोड़ देती है। क्या यही उसका कर्तव्य है या हमने बस यही तय कर लिया है?
किसने तय किया ये सब? क्या बहू की अपनी कोई ज़िंदगी नहीं होती? क्या उसे थकने का, रोने का, बोलने का कोई हक नहीं?
शादी – एक साझेदारी, ना कि नौकरी का कॉन्ट्रैक्ट
शादी दो लोगों का साथ है, दो आत्माओं का मेल है।
फिर क्यों घर की सारी ज़िम्मेदारी एक ही इंसान पर?
- क्या पति नहीं उठा सकता सुबह?
- क्या सास-ससुर बहू की मदद नहीं कर सकते?
- क्या घर के काम मिल बाँट कर नहीं हो सकते?
जब एक महिला नौकरी करती है और साथ में घर भी संभालती है, तो उसे “सुपरवुमन” नहीं – एक थकी हुई आत्मा कहा जाना चाहिए, जो चुपचाप अपनी पहचान खोती जा रही है।
बहुत बार ऐसा होता है कि शादी के बाद बहू की ज़िंदगी में खुशियों से ज़्यादा अपेक्षाएँ दी जाती हैं। हर वक्त उसे “एक आदर्श बहू” बनने का दबाव झेलना पड़ता है। कोई ये नहीं सोचता कि वो भी एक इंसान है, जिसे प्यार, सम्मान और बराबरी चाहिए।
ये सवाल हमें खुद से पूछना है – क्या हम भी उसी मानसिकता का हिस्सा हैं?
अगर आपकी बहू हर दिन चुपचाप काम करती है, और आपने कभी उसे धन्यवाद नहीं कहा – तो सोचिए:
- क्या आपने उसके सपनों को मार डाला?
- क्या आप भी उसे एक ‘नौकर’ की तरह ट्रीट कर रहे हैं?
एक बार ठहरकर सोचिए — शादी के बाद बहू की ज़िंदगी सिर्फ उसका नहीं, पूरे समाज का आइना होती है। जैसा हम उसे ट्रीट करते हैं, वैसी ही आने वाली पीढ़ियाँ बनती हैं। क्या हम उसे एक इंसान की तरह देख पा रहे हैं, या अब भी सिर्फ एक ‘काम वाली’ की तरह?
बहू को बहू रहने दो, नौकरानी मत बनाओ
वो भी किसी की बेटी है, उसकी भी इच्छाएँ हैं।
- अगर वो गाना सुनना चाहती है – सुनने दो।
- अगर वो आराम करना चाहती है – करने दो।
- अगर वो कुछ बनना चाहती है – सपोर्ट करो।
क्योंकि एक खुशहाल बहू ही एक खुशहाल परिवार बना सकती है।
Bihaao.com का संदेश – रिश्ते बनाओ, गुलामी नहीं
Bihaao.com पर हम सिर्फ रिश्ता नहीं जोड़ते, हम ऐसे परिवार जोड़ते हैं जो सम्मान, समानता और प्यार पर आधारित हों।
हम चाहते हैं कि हर लड़की को वो घर मिले, जहाँ उसे सिर्फ बहू नहीं – बेटी समझा जाए।
अगर आप भी चाहते हैं कि आपकी बहू आपकी बेटी जैसी हो, तो सबसे पहले अपनी सोच बदलें।
अब समय है सोच बदलने का
बहू कोई मशीन नहीं, वो भी एक इंसान है। शादी के बाद उसे सहयोग चाहिए, आदेश नहीं।
छत्तीसगढ़ के हर माँ-बाप, हर सास-ससुर, हर पति को ये समझना होगा कि:
शादी सेवा का नहीं, साथ निभाने का रिश्ता है।
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